यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति ।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः ॥17॥
यः-जो; न न तो; हृष्यति–प्रसन्न होता है; न-नहीं; द्वेष्टि–निराश होता है; न कभी न हीं; शोचति-शोक करता है; न-न तो; काड क्षति-सुख की लालसा करता है; शुभ-अशुभ परित्यागी-शुभ और अशुभ कर्मों का त्याग करने वाला; भक्ति से परिपूर्ण-मान्–भक्त; यः-जो; स:-वह है; मे-मेरा; प्रियः-प्रिय।
BG 12.17: वे जो न तो लौकिक सुखों से हर्षित होते हैं और न ही सांसारिक दुखों से निराश होते हैं तथा न ही किसी हानि के लिए शोक करते हैं एवं न ही लाभ की लालसा करते हैं, वे शुभ और अशुभ कर्मों का परित्याग करते हैं। ऐसे भक्त जो भक्ति भावना से परिपूर्ण होते हैं, मुझे अति प्रिय हैं।
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लौकिक सुखों से हर्षित तथा संसार के दुखों से निराश न होनाः यदि हम अंधकार में हैं और उस समय कोई दीपक दिखा कर हमारी सहायता करता है, ऐसे में हम स्वाभाविक रूप से प्रसन्न हो जाते हैं। फिर उस समय जब कोई दीपक को बुझा देता है तब हम निराश हो जाते हैं, लेकिन अगर हम दोपहर के समय सूर्य के प्रकाश में खड़े हैं उस समय यदि कोई हमें दीपक दिखाता है और कोई दूसरा उसे बुझा देता है तब हम उदासीन रहते हैं। समान रूप से भगवान के भक्त भगवान के दिव्य प्रेम और आनन्द से तृप्त रहते हैं और इसलिए प्रसन्नता और निराशा से ऊपर उठ जाते हैं।
लाभ में हर्षित और हानि में शोक न करनाः ऐसे भक्त न तो सांसारिक सुखों के लिए लालायित होते हैं और न ही अप्रिय परिस्थितियों में शोक करते हैं। नारद भक्ति दर्शन में वर्णन है:
यत्प्राप्य न किञ्चिद्वाञ्छति, न शोचति,
न द्वेष्टि, न रमते, नोत्साही भवति ।।
(नारद भक्ति सूत्र-5)
1. "भगवान का प्रेम प्राप्त कर भक्त सुखद वस्तुओं को प्राप्त करने की न तो लालसा करते हैं और न ही उनसे वंचित होने पर शोक व्यक्त करते हैं। वे अपने को कष्ट पहुँचाने वालों से द्वेष नहीं करते। वे सांसारिक विषय भोगों को पसंद नहीं करते। वे अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा को बढ़ाने के लिए चिन्तित नहीं होते। भक्त भगवान के आनन्द में मगन रहते हैं" इसलिए तुलनात्मक दृष्टि से उन्हें सभी लौकिक पदार्थों से मिलने वाले सुख तुच्छ और नगण्य प्रतीत
होते हैं।
2. शुभ और अशुभ कर्मों का त्यागः भक्त प्रायः अशुभ कर्मों (विकर्मों) का त्याग करते हैं क्योंकि ये प्रकृति के विरूद्ध हैं और भगवान को अप्रसन्न करते हैं। शुभ कर्मों को श्रीकृष्ण धार्मिक ग्रथों में उल्लिखित कर्मकाण्डों के रूप में परिभाषित करते हैं। भक्त द्वारा संपादित सभी कर्म, अकर्म बन जाते हैं क्योंकि इनका संपादन बिना किसी स्वार्थ के प्रयोजन से किया जाता है और ये भगवान को समर्पित होते हैं। अकर्म की अवधारणा की व्याख्या चौथे अध्याय के 14वें से 20वें श्लोक में सविस्तार से की गयी है।
3. भक्तिभाव से परिपूर्णः भक्तिमान्यः का अर्थ 'भक्तिभाव से परिपूर्ण' होना है। दिव्य प्रेम की प्रकृति ऐसी है जो नित्य बढ़ता रहता है। भक्ति रस के कवि कहते हैं कि 'प्रेम में पूर्णिमा नहीं' अर्थात दिव्य प्रेम चन्द्रमा के समान नहीं है जो एक सीमा तक बढ़ता है और फिर घटता है बल्कि दिव्य प्रेम असीम रूप से बढ़ता है। इसलिए भक्त के हृदय में भगवान के लिए प्रेम का समुद्र समाया रहता है। अतः श्रीकृष्ण कहते हैं कि ऐसे भक्त मुझे अति प्रिय है।